हमारा क्या जमाना था !
हमारे ज़माने में खुद ही स्कूल जाना पड़ता था क्योंकि, साइकिल और बस या ऑटो से भेजने की परंपरा नहीं थी। स्कूल भेजने के बाद कुछ अच्छा या बुरा होगा ऐसा विचार हमारे मां-बाप के मन में कभी नहीं आया। उनको किसी बात का डर भी नहीं होता था।
पास या फेल बस यही हमको मालूम था। परसेंटेज से हमारा कभी भी कोई सम्बन्ध ही नहीं रहता था। ट्यूशन लगाई है, ऐसा स्कूल में बताने में भी शर्म आती थी। क्योंकि हमको गधा समझा जा सकता था।
किताबों के पन्नों में पीपल के पत्ते और विद्या के पत्ते तथा मोर पंख रखकर हम होशियार हो सकते हैं, ऐसी हमारी मान्सिक्ताएं थी।
कपड़े की थैलियों और बस्तों में तथा बाद में एल्यूमीनियम की पेटियों में अपनी किताबों और कापियों को बेहतरीन तरीके से जमा कर रखने में हमें हमारा कोई जवाब नहीं था।
हर साल जब अगली क्लास का बस्ता तैयार करते थे तो उसके पहले किताब कापी के ऊपर रद्दी पेपर की कवर चढ़ाते थे। और यह काम हर साल एक वार्षिक उत्सव या त्योहार की तरह मनाया जाता था।
साल खत्म होने के बाद पुरानी किताबें बेचना और अगले साल की पुरानी किताबें अपने स्कूल के दोस्तों से खरीदने में हमें किसी प्रकार की शर्म नहीं आती थी। क्योंकि तब हर साल न किताब बदलती थी और न ही पाठ्यक्रम।
हमारी माताजी और पिताजी को हमारे पढ़ाई का बोझ है, ऐसा हमें कभी महसूस भी नहीं हुआ। अपने किसी दोस्त के साइकिल के अगले डंडे पर और दूसरे दोस्त को पीछे कैरियर पर बिठाकर गली-गली में घूमना हमारी दिनचर्या थी। इस तरह से हम ना जाने कितना घूमे होंगे।
बचपन में स्कूल के मास्टर जी के हाथ से मार खाना और पैर के अंगूठे पकड़ कर कई घंटे खड़े रहना,और कान लाल होने तक मरोड़े जाते वक्त हमारा ईगो कभी आड़े नहीं आता था। सही बोलूं तो ईगो किस चिड़िया का नाम होता है यह हमें मालूम ही नहीं था।
घर और स्कूल में मार खाना भी हमारे दैनिक जीवन की एक सामान्य प्रक्रिया थी। मारने वाला और मार खाने वाला दोनों ही खुश रहते थे। मार खाने वाला इसलिए, क्योंकि कल से आज कम पिटे हैं और मारने वाला है इसलिए कि आज फिर से हाथ धो लिए।
बिना चप्पल जूते के और किसी भी गेंद के साथ लकड़ी के पटियों से कहीं पर भी नंगे पैर क्रिकेट खेलने में क्या सुख था वह हमको ही पता है। वह सुख शब्दों में बयां नहीं किया जा सकता।
हमने अपने माँ बाबूजीसे पॉकेट मनी कभी भी मांगी ही नहीं और पिताजी ने भी दी नहीं। इसलिए हमारी आवश्यकताऐं भी छोटी-छोटी सी ही थीं। साल में कभी-कभार एक-आद बार मेले में जलेबी खाने को मिल जाती थी तो बहुत होता था उसमें भी हम बहुत खुश हो लेते थे।
छोटी मोटी जरूरतें तो घर में ही कोई भी पूरी कर देता था। क्योंकि उस समय परिवार संयुक्त होते थे। दिवाली में लिए गये पटाखों की लड़ को छुट्टा करके एक एक पटाखा फोड़ते रहने में हमको कभी अपमान नहीं लगा। बल्कि हम तो इस त्यौहार का साल भर इंतजार करते थे।
हम हमारे मां बाप को कभी बता ही नहीं पाए कि हम आपको कितना प्रेम करते हैं। क्योंकि उस समय हमको आई लव यू (I Love You) कहना ही नहीं आता था।
आज हम दुनिया के अनगिनत धक्के और टाॅन्ट खाते हुए और संघर्ष करती हुई इस दुनिया का एक हिस्सा है। किसी को जो चाहिए था वह मिला और किसी को कुछ मिला कि नहीं क्या पता।
स्कूल की डबल ट्रिपल सीट पर घूमने वाले हम और स्कूल के बाहर उस हाफ पेंट मैं रहकर गोली टाॅफी बेचने वाले की दुकान पर दोस्तों द्वारा खिलाए पिलाए जाने की मेहरबानी हमें आज भी याद है।
वह दोस्त कहां खो गए ? वह बेर वाली कहां खो गई ? वह चूरन बेचने वाला कहां खो गया पता ही नहीं ?
हम दुनिया में कहीं भी रहे पर यह सत्य है कि हम वास्तविक दुनिया में बड़े हुए हैं हमारा वास्तविकता से सामना वास्तव में ही हुआ है।
कपड़ों में सिलवटें ना पड़ने देना और रिश्तों में औपचारिकता का पालन करना हमें जमा ही नहीं......सुबह का खाना और रात का खाना इसके सिवा टिफिन क्या था हमें अच्छे से मालूम ही नहीं। हम अपने नसीब को दोष नहीं देते जो जी रहे हैं वह आनंद से जी रहे हैं और यही सोचते हैं और यही सोच हमें जीने में मदद कर रही है जो जीवन हमने जिया उसकी वर्तमान से तुलना हो ही नहीं सकती।
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