भगवान् वेंकटेश्वर के सभी भक्तों को प्रसाद स्वरुप ये कथा समर्पित है। कृपया इसका अध्ययन एवं श्रवण अवश्य करें। और कथा का आनंद लें। और हो सके तो भगवान व्यंकटेश के प्रसाद स्वरुप इस कथा को सभी भक्तों को शेयर करें। और पुण्य कमाय। भक्तों ! ऐसा अवसर सबको प्राप्त नहीं होता। इसलिए इस अवसर का लाभ उठाये और भगवान श्री व्यंकटेशजी के दरबार में हाजिरी लगाये।
तो चलिए कथा शुरू करते है।
यह अलौकिक दिव्य चमत्कारी घटना सन् 1979 नवंबर माह की हैं। सन् 1979 में तिरुपति क्षेत्र में भयंकर सूखा पडा था। दक्षिण-पूर्व का मानसून पूरी तरह विफल हों गया था। (गोगर्भम् जलाशय) तिरुपति में जल-आपूर्ति का एक मात्र स्त्रोत हैं, वह लग-भग सूख चुका था। आस-पास के स्थित कुँए भी लग-भग सूख चुके थे।
तिरुपति ट्रस्ट के जो ट्रस्टी थे, वे बड़े भारी तनाव में थे। ट्रस्ट अधिकारियों की अपेक्षा थी की सितम्बर-अक्टूबर की चक्रवाती हवाओं से थोड़ी-बहुत वर्षा हों जाएगी किन्तु नवम्बर आ पहुंचा था। पर बारिश नहीं हुई, लग-भग एक महीने का पानी बचा था। मौसम विभाग ने भी स्पष्ट कह दिया था की वर्षा की भी कोई संभावना नहीं हैं।
उस समय जो सरकारें थी, उन्होंने अपने हाथ खड़े कर दिए थे। मंदिर के ट्रस्ट के सामने मन्दिर में दर्शन बंद करने के अतिरिक्त अन्य कोई विकल्प (ऑप्शन) नहीं बचा था। (दर्शन निषेध) अर्थात् दर्शन और पूजन अनिश्चित् काल के लिए बन्द कर देना, यह उस समय बहुत बड़ी समस्या आ गयी थी।
मंदिर के ट्रस्टीयों की आत्मा, स्वयं को धिक्कार रही थी की, कैसे हम श्रद्धालुओं को यह कह पायेंगे की जल के अभाव के कारण, देवस्थान में देव-दर्शन प्रतिबंधित कर दिए गए हैं! परन्तु दर्शन बंद करने के अतिरिक्त कोई मार्ग शेष नहीं बचा था।
विधर्मियों और मूर्तिपूजन के विरोधियों का आनन्द अपने चरम पर था। नास्तिक लोग मारे ख़ुशी के झूम रहे थे। अखबारों में ख़बरें आ रही थी की जो भगवान् अपने तीर्थ में जल-आपूर्ति की व्यवस्था नहीं कर सकते वो भगवद्भक्तमण्डल पर कृपा कैसे करेंगे?
सनातन धर्मानुयायियों को खुलेआम अन्धविश्वासी तथा सनातन धर्म को अंधविश्वास ऐसा कहा जा रहा था। श्रद्धालु और धर्मानुयायीयो की आत्मा रो रही थी, उनके जो आंसू थे वो थम नहीं रहे थे! कुछ दिन और बीत गए परन्तु जल की आपूर्ति की कोई व्यवस्था नहीं दिख रही थी।
इस विकट परिस्थिति में जब मंदिर के ट्रस्टी बहुत चिंतित थे। तभी भगवन व्यंकटेश की माया से उन्हें अचानक बुद्धि आयी, और उन्होंने वेदों और शास्त्रों के धुरन्धर विद्वान् और तिरुपति ट्रस्ट के महान सलाहकार," 90 वर्षीय श्री उप्पुलरी गणपति शास्त्री जी महाराज" से सम्पर्क किया।
ट्रस्टीयों ने श्रीमहाराजजी से पूछा की क्या वेदों और शास्त्रों में इस गंभीर समस्या का कोई उपाय नहीं हैं?
तब श्रीमहाराज ने उत्तर दिया की वेदों और शास्त्रों में इस लोक की तथा अलौकिक, समस्त समस्याओं का निदान (हल) हैं। श्रीमहाराजजी ने ट्रस्टीयों को “वरुण जप” करने का परामर्श दिया। और कहा की इससे आप लोगों की मनोकामना अवश्य पूरी होगी।
श्रीमहाराजजी ने ट्रस्टीयों को बता दिया की पूर्ण समर्पण , श्रद्धा और विश्वास से यदि अनुष्ठान किया जाए तभी अनुष्ठान फलीभूत होगा अन्यथा नहीं। श्रद्धा में एक पैसेभर की कमी पूरे अनुष्ठान को विफल कर देगी।
ट्रस्टीयों ने “वरुण जाप” करने का निर्णय ले लिया और दूर-दूर से विद्वानों को निमंत्रण भेजा गया। समय बहुत ही कम बचा था और लक्ष्य बहुत ही बड़ा था। देवस्थान के जलाशय में जल-आपूर्ति केवल दस दिनों की ही बाकी रह गई थीं। १ (एक) नवम्बर को जप का मुहूर्त निकला था।
भगवन भी अपने भक्तो के धैर्य की परीक्षा लेते है, तभी अचानक बड़ी भारी समस्याओं ने ट्रस्टीयों को घेर लिया। जिन लोगों को निमंत्रण भेजा गया था, उनमे से अधिकांश लोगों ने आने में असमर्थता व्यक्त कर दी। क्यों की किसी का स्वास्थ्य खराब हो गया था , तो किसी के घर मृत्यु हों गई थी, किसी को कुछ तो किसी को कुछ अचानक समस्या आ गई।
“वरुण-जाप” लगभग असंभव हों गया !
इधर मंदिर के ट्रस्टी अपनी समस्या से परेशां थे और उधर इन खबरों को अखबार बड़ी प्रमुखता से मिर्च मसाला लगाकर छापे जा रहे थे, तथा सनातन धर्म, धर्मानुयायियों, ट्रस्टमण्डल और तिरुपति बालाजी का मज़ाक बनाए जा रहे थे। धर्म के जो शत्रु थे, वे सनातन धर्म को अंधविश्वास सिद्ध करने पर तुले हुए थे।
ट्रस्ट के जो अध्यक्ष श्रीप्रसाद साहब थे, उनकी आँखों में आंसू थे। उन्होंने रो-रोकर अंतर्मन से प्रभु वेंकटेश से प्रार्थना की। और उनके साथ-साथ सारे ट्रस्टी और भक्तों ने भी प्रार्थना की। सभी ने प्रभु से प्रार्थना की और कहा की हे प्रभु “क्या वरुण जाप नहीं हों पाएगा? क्या मंदिर के दर्शन बन्द हों जायेंगे? हे प्रभु क्या सदियों से चलती हुई ये परंपरा लुप्त हो जाएगी ?
नवम्बर के महीने में रात्री विश्राम के लिए मंदिर के पट बंद हों चुके थे । मंदिर में कोई नहीं था। सभी चिंतित भक्तगण अपने-अपने घरों में रो-रोकर प्रभु से प्रार्थना कर रहे थे। और तभी रात्रि में लगभग 1 बजे पूरे तिरुमला पर्वत पर यह घंटा नाद गूंज उठा। मानो प्रभु सबसे कह रहे हो "चिंता मत करो! मैं तुम्हारे साथ हूँ। "
दूसरे दिन, सुबह से ही “वरुण जाप” हेतु सारी प्रतिकूलताएँ, अनुकूलताओं में बदलने लगीं। जिन विद्वानों ने आने में असमर्थता व्यक्त की थीं उनकी उपस्थिति के समाचार आने लग गए। 8 नवम्बर को पुनः मुहूर्त निर्धारित कर लिया गया। जो विद्वान् अनुष्ठान से मुंह फेर रहे थे , वे पुरी शक्ति के साथ अनुष्ठान में आ डटे।
"वरुण जाप” तीन दिनों तक चलनेवाली कठिन वैदिक प्रक्रिया हैं । यह परम कठिन प्रक्रिया प्रातःकल लगभग तीन बजे आरम्भ हों जाती हैं। इसमें कुछ विद्वानों को तो घंटो छाती तक पुष्करिणी सरोवर में खड़े रहकर “मन्त्र जाप” करने थे , कुछ भगवान् के “अर्चा विग्रहों” का अभिषेक करते थे , कुछ “यज्ञ और होम” करते थे तो कुछ “वेदपाठ” करते थे। तीन दिनों की इस परम् कठिन वैदिक प्रक्रिया के चौथे दिन पूर्णाहुति के रूप में “सहस्त्र कलशाभिषेकम्” सेवा प्रभु “श्री वेंकटेश्वर” को अर्पित की जानेवाली थी।*
तीन दिनों का अनुष्ठान संपन्न हुआ। सूर्यनारायण अन्तरिक्ष में पूरे तेज के साथ दैदीप्यमान हों रहे थे। बादलों का नामोनिशान तक नहीं था।
भगवान् के भक्त बुरी तरह से निराश होकर मन ही मन भगवन से अजस्त्र प्रार्थना कर रहे थे।
भगवान् के “अर्चा विग्रहों” को पुष्करिणी सरोवर में स्नान कराकर पुनः श्रीवारी मंदिर में ले जाया जा रहा था।
सेक्युलर पत्रकार चारों ओर खड़े होकर तमाशा देख रहे थे और हंस रहे थे और चारों ओर विधर्मी घेरकर चर्चा कर रहे थे की “ अनुष्ठान से बारिश? ऐसा कहीं होता हैं? कैसा अंधविश्वास हैं यह?“ कैसा पाखण्ड हैं यह?”
ट्रस्ट के अध्यक्ष श्री प्रसाद साहब और ट्रस्टीगण मन ही मन सोच रहे थे की “हमसे कौनसा अपराध हों गया?” , क्यों प्रभु ने हमारी पूजा अस्वीकार कर दी? प्रभु हमारी पुकार क्यों नहीं सुन रहे है ? अब हम संसार को और अपनेआप को क्या मुंह दिखाएँगे?”
इतने में ही दो तीन पानी की बूंदे श्री प्रसाद के माथे पर पड़ी..
उन्हें लगा कि ये पसीने की बूंदे होंगी और घोर निराशा भरे कदम बढ़ाते रहे, मंदिर की ओर पर फिर और पाँच छह मोटी मोटी बूंदे पड़ी! सर ऊपर उठाकर देखा तो आसमान में काले काले पानी से भरे हुए बादल उमड़ आए है और घनघोर बिजली कड़कड़ा उठी!
दो तीन सेकेण्ड में मूसलधार वर्षा आरम्भ हुई! ऐसी वर्षा की सभी लोगो को भगवान के उत्सव विग्रहों को लेकर मंदिर की ओर दौड़ लगानी पड़ी फिर भी वे सभी सर से पैर तक बुरी तरह से भीग गए थे।
याद रहे, वर्षा केवल तिरुपति के पर्वत क्षेत्र में हुई, आसपास एक बूँद पानी नहीं बरसा। गोगर्भम् जलाशय और आसपास के कुंएं लबालब भरकर बहने लगे। इंजिनियरों ने तुरंत आकर बताया की पूरे वर्ष तक जल-आपूर्ति की कोई चिंता नहीं।
सेक्युलर पत्रकार और धर्म के शत्रुओं के मुंह पर हवाइयां उड़ने लगी और वे बगलें झाँकने लगे। लोगों की आँखें फटी-की-फटी रह गई। भक्तमण्डल जय-जयकार कर उठा।
यह घटना सबके सामने घटित हुई और हज़ारों पत्रकार और प्रत्यक्षदर्शी इसके प्रमाण हैं लेकिन इस बात को दबा दिया गया।
“सनातन धर्म” की इस इतनी बड़ी जीत के किस्से कभी टेलीविज़न , सिनेमा अथवा सोशल मीडिया पर नहीं गाये जाते ।
भगवान् वेंकटेश्वर श्रीनिवास कोई मूर्ती नहीं वरन् साक्षात् श्रीमन्नारायण स्वयं हैं। अपने भक्तों की पुकार सुनकर वे आज भी दौड़े चले आते हैं। भक्त ह्रदय से पुकारें तो सही।
“वेंकटाद्री समं स्थानं , ब्रह्माण्डे नास्ति किंचन् ।
श्रीवेंकटेश समो देवों , न भूतो न भविष्यति ॥“
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